Home CBSE 7th Class हिंदी ( क्लास - VII )

दादी माँ

दादी माँ


कमज़ोरी ही है अपनी, पर सच तो यह है कि ज़्ञरा-सी कठिनाई पड़ते; बीसों गरमी , बरसात और वसंत देखने के बाद भी, मेरा मन सदा नहीं तो प्रायः अनमना-सा हो जाता है। मेरे शुभचिंतक मित्र मुँह पर मुझे प्रसन्‍न करने के लिए आनेवाली छुट्टियों की सूचना देते हें और पीठ पीछे मुझे कमज़ोर और ज़रा-सी प्रतिकूलता से घबरानेवाला कहकर मेरा मज़ाक उद़ाते हैं। में सोचता हूँ, 'अच्छा, अब कभी उन बातों को न सोचूँगा। ठीक है, जाने दो, सोचने से होता ही कया है '। पर, बरबस मेरी आँखों के सामने शरद की शीत किरणों के समान स्वच्छ, शीतल किसी की धुँधली छाया नाच उठती है।

मुझे लगता है जैसे क्वार के दिन आ गए हें। मेरे गाँव के चारों ओर पानी ही पानी हिलोरें ले रहा है। दूर के सिवान से बहकर आए हुए मोथा और साईं की अधगली घासें, घेऊर और बनप्याज्ञ की जडें तथा नाना प्रकार की बरसाती घासों के बीज, सूरज की गरमी में खोलते हुए पानी में सड़कर एक विचित्र गंध छोड रहे हैं। रास्तों में कीचड़ सूख गया है और गाँव के लड़के किनारों पर झागभरे जलाशयों में धमाके से कूद रहे हैं। अपने-अपने मौसम की अपनी-अपनी बातें होती हैं। आषाढ़ में आम और जामुन न मिलें, चिता नहीं,अगहन में चिउडा और गुड़ न मिले, दुख नहीं, चेत के दिनों में लाई के साथ गुड की पट्टी न मिले, अफ़सोस नहीं, पर क्वार के दिनों में इस गंधपूर्ण झागभरे जल में कूदना न हो तो बड़ा बुरा मालूम होता है। में भीतर हुड़क रहा था। दो-एक दिन ही तो कूद सका था, नहा-धोकर बीमार हो गया। हलकी बीमारी न जाने क्‍यों मुझे अच्छी लगती है। थोड़ा-थोड़ा ज्वर हो, सर में साधारण दर्द और खाने के लिए दिनभर नींबू ओर साबू। लेकिन इस बार ऐसी चीज़ नहीं थी। ज्वर जो चढ़ा तो चढ्ता ही गया। रज़ाई पर रज़ाई-और उतरा रात बारह बजे के बाद। दिन में मैं चादर लपेटे सोया था। दादी माँ आईं, शायद नहाकर आई थीं, उसी झागवाले जल में। पतले-दुबले स्नेह-सने शरीर पर सफ़ेद किनारीहीन धोती, सन-से सफ़ेद बालों के सिरों पर सद्यः टपके हुए जल की शीतलता। आते ही उन्होंने सर, पेट छुए। आँचल की गाँठ खोल किसी अदृश्य शक्तिधारी के चबूतरे की मिट्टी मुँह में डाली, माथे पर लगाई। दिन-रात चारपाई के पास बेठी रहतीं, कभी पंखा झलतीं, कभी जलते हुए हाथ-पैर कपडे से सहलातीं, सर पर दालचीनी का लेप करतीं और बीसों बार छू-छकर ज्वर का अनुमान करतीं। हाँडी में पानी आया कि नहीं? उसे पीपल की छाल से छोंका कि नहीं? खिचड़ी में मूँग की दाल एकदम मिल तो गई है? कोई बीमार के घर में सीधे बाहर से आकर तो नहीं चला गया, आदि लाखों प्रश्न पूछ-पूछकर घरवालों को परेशान कर देतीं।

दादी माँ को गँवई-गाँव की पचासों किस्म की दवाओं के नाम याद थे। गाँव में कोई बीमार होता, उसके पास पहुँचतीं ओर वहाँ भी वही काम। हाथ छूना, माथा छूना, पेट छूना। फिर भूत से लेकर मलेरिया, सरसाम, निमोनिया तक का अनुमान विश्वास के साथ सुनातीं। महामारी और विशूचिका के दिनों में रोज़ सवेरे उठकर स्नान के बाद लवंग और गुड़-मिश्रित जलधार, गुग्गल और धूप। सफ़ाई हर डर कोई उनसे सीख ले। दवा में देर होती, मिश्री या शहद खत्म हो जाता, चादर या गिलाफ़ नहीं बदले जाते, तो वे जेसे पागल हो जातीं। बुखार तो मुझे अब भी आता है। नौकर पानी दे जाता है, मेस-महाराज अपने मन से पकाकर खिचड़ी या साबू। डॉक्टर साहब आकर नाड़ी देख जाते हैं और कुनैन मिक्‍्सचर की शीशी  तिताई के डर से बुखार भाग भी जाता हे, पर न जाने क्‍यों ऐसे बुखार को बुलाने का जी नहीं होता |

किशन भैया की शादी ठीक हुई, दादी माँ के उत्साह और आनंद का क्‍या कहना! दिनभर गायब रहतीं। सारा घर जैसे उन्होंने सर पर उठा लिया हो। पडोसिनें आतीं। बहुत बुलाने पर दादी माँ आतीं, “बहिन बुरा न मानना। कार-परोजन का घर ठहरा। एक काम अपने हाथ से न करूँ, तो होनेवाला नहीं।” जानने को यों सभी जानते थे कि दादी माँ कुछ करतीं नहीं। पर किसी काम में उनकी अनुपस्थिति वस्तुतः विलंब का कारण बन जाती। उन्हीं दिनों की बात है। एक दिन दोपहर को में घर लोटा। बाहरी निकसार में दादी माँ किसी पर बिगड़ रही थीं। देखा, पास के कोने में दुबकी रामी की चाची खड़ी है। “सो न होगा, धन्नो!

रुपये मय सूद के आज दे दे। तेरी आँख में तो शरम हे नहीं। माँगने के समय कैसी आई थी! पैरों पर नाक रगड़ती फिरी, किसी ने एक पाई भी न दी। अब लगी हे आजकल करने-फसल में दूँगी,फसल में दूँगी..अब क्‍या तेरी खातिर दूसरी फसल कटेगी?”

“दूंगी, मालकिन!” रामी की चाची रोती हुई, दोनों हाथों से आँचल पकड़े दादी माँ के पैरों की ओर झुकी, “बिटिया की शादी है। आप न दया करेंगी तो उस बेचारी का निस्तार केसे होगा!” “हट, हट! अभी नहाके आ रही हूँ!” दादी माँ पीछे हट गईं।“जाने दो दादी,” मैंने इस अप्रिय प्रसंग को हटाने की गरज से कहा, “बेचारी गरीब है, दे देगी कभी।”
“चल, चल! चला है समझाने... ”

मैं चुपके से आँगन की ओर चला गया। कई दिन बीत गए, मैं इस प्रसंग को एकदम भूल-सा गया। एक दिन रास्ते में रामी की चाची मिली। वह दादी को ' पूतों फलो दूधों नहाओ' का आशीर्वाद दे रही थी! मैंने पूछा, “क्या बात है, धनन्‍नो चाची ”, तो उसने विह्ल होकर कहा, “उरिन हो गई बेटा, भगवान भला करे हमारी मालकिन का। कल ही आई थीं। पीछे का सभी रुपया छोड दिया, ऊपर से दस रुपये का नोट देकर बोलीं, 'देखना धन्नो, जेसी तेरी बेटी वेसी मेरी, दस-पाँच के लिए हँसाई न हो।' देवता है बेटा, देवता।“उस रोज़ तो बहुत डाँट रही थीं?” मैंने पूछा। “वह तो बडे लोगों का काम है बाबू, रुपया देकर डाँटें भी न तो लाभ क्या! ” में मन-ही-मन इस तर्क पर हँसता हुआ आगे बढ़ गया।

किशन के विवाह के दिनों की बात है। विवाह के चार-पाँच रोज़ पहले से ही औरतें रात-रातभर गीत गाती हैं। विवाह की रात को अभिनय भी होता है। यह प्राय: एक ही कथा का हुआ करता हे, उसमें विवाह से लेकर पुत्रोत्पत्ति तक के सभी दृश्य दिखाए जाते हैं-सभी पार्ट ओरतें ही करती हें। में बीमार होने के कारण बारात में न जा सका। मेरा ममेरा भाई राघव दालान में सो रहा था (वह भी बारात जाने के बाद पहुँचा था)। औरतों ने उस पर आपत्ति की।

दादी माँ बिगडीं, “लड़के से क्या परदा? लड़के और बरह्मा का मन एक-सा होता है।”

“दूंगी, मालकिन!” रामी की चाची रोती हुई, दोनों हाथों से आँचल पकड़े दादी माँ के पैरों की ओर झुकी, “बिटिया की शादी है। आप न दया करेंगी तो उस बेचारी का निस्तार केसे होगा!”
“हट, हट! अभी नहाके आ रही हूँ!” दादी माँ पीछे हट गईं।

“जाने दो दादी,” मैंने इस अप्रिय प्रसंग को हटाने की गरज से कहा, “बेचारी गरीब है, दे देगी कभी।”

“चल, चल! चला है समझाने... ”

मैं चुपके से आँगन की ओर चला गया। कई दिन बीत गए, मैं इस प्रसंग को एकदम भूल-सा गया। एक दिन रास्ते में रामी की चाची मिली। वह दादी को ' पूतों फलो दूधों नहाओ' का आशीर्वाद दे रही थी! मैंने पूछा, “क्या बात है, धनन्‍नो चाची ”, तो उसने विह्ल होकर कहा, “उरिन हो गई बेटा, भगवान भला करे हमारी मालकिन का। कल ही आई थीं। पीछे का सभी रुपया छोड दिया, ऊपर से दस रुपये का नोट देकर बोलीं, 'देखना धन्नो, जेसी तेरी बेटी वेसी मेरी,
दस-पाँच के लिए हँसाई न हो।' देवता है बेटा, देवता।”

“उस रोज़ तो बहुत डाँट रही थीं?” मैंने पूछा।

“वह तो बडे लोगों का काम है बाबू, रुपया देकर डाँटें भी न तो लाभ क्या! ” में मन-ही-मन इस तर्क पर हँसता हुआ आगे बढ़ गया।

किशन के विवाह के दिनों की बात है। विवाह के चार-पाँच रोज़ पहले से ही औरतें रात-रातभर गीत गाती हैं। विवाह की रात को अभिनय भी होता है। यह प्राय: एक ही कथा का हुआ करता हे, उसमें विवाह से लेकर पुत्रोत्पत्ति तक के सभी दृश्य दिखाए जाते हैं-सभी पार्ट ओरतें ही करती हें। में बीमार होने के कारण बारात में न जा सका। मेरा ममेरा भाई राघव दालान में सो रहा था (वह भी बारात जाने के बाद पहुँचा था)। औरतों ने उस पर आपत्ति की। दादी माँ बिगडीं, “लड़के से क्या परदा? लड़के और बरह्मा का मन एक-सा होता है।”

“क्या है, पूछ।”

“तुम रोती थीं?”

दादी माँ मुसकराई, “पागल, तूने अभी खाना भी नहीं खाया न, चल-चल! ”

“धोती तो बदल लो, दादी माँ”, मैंने कहा।

“मुझे सरदी-गरमी नहीं लगती बेटा।” वे मुझे खींचती रसोई में ले गईं।

सुबह मैंने देखा, चारपाई पर बेठे पिता जी और किशन भैया मन मारे कुछ सोच रहे हैं। “दूसरा चारा ही कया हे?” बाबू बोले , “रुपया कोई देता नहीं। कितने के तो अभी पिछले भी बाकी हें!” वे रोने-रोने-से हो गए।

“रोता क्यों है रे!” दादी माँ ने उनका माथा सहलाते हुए कहा, “मैं तो अभी हूँ ही।” उन्होंने संदूक खोलकर एक चमकती-सी चीज़ निकाली, “तेरे दादा ने यह कंगन मुझे इसी दिन के लिए पहनाया था।” उनका गला भर आया, “मैंने इसे पहना नहीं, इसे सहेजकर रखती आई हूँ। यह उनके वंश की निशानी है।” उन्होंने आँसू पोंछकर कहा, “पुराने लोग आगा-पीछा सब सोच लेते थे, बेटा।”

सचमुच मुझे दादी माँ शापश्रष्ट देवी-सी लगीं। धुँधली छाया विलीन हो गई। मैंने देखा, दिन काफ़ी चढ़ आया है। पास के लंबे खजूर के पेड से उड़कर एक कोआ अपनी घिनोनी काली पाँखें फेलाकर मेरी खिड़की पर बैठ गया। हाथ में अब भी किशन भेया का पत्र काँप रहा है। काली चींटियों-सी कतारें धूमिल हो रही है। आँखों पर विश्वास नहीं होता। मन बार-बार अपने से ही पूछ बेठता है-' क्या सचमुच दादी माँ नहीं रहीं?'